सोमवार, 30 नवंबर 2015

मैं सागर नहीं...

मैं सागर नहीं कि हर अच्छाई-बुराई को स्वयं में समा सकूँ
मैं वह नदी भी नहीं, जो स्वयं में उड़ेली गई अच्छाई-बुराई को अपने बहते पानी से बहा कर पुनः पवित्र हो जाए
मैं तो हूँ वह झील, जिसका शुद्ध जल किसी भी अच्छाई-बुराई के पड़ते ही मलिन हो जाता है और यह मलिनता घण्टों-दिनों और महीनों तक रहता है।
मुझ झील को पुनः अपनी जलीय शुद्धता प्राप्त करने के लिए मुझमें डाली गई अच्छाई-बुराई से उत्पन्न विक्षेप के शांत होने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है अनेऔर यह प्रतीक्षा उसके पूर्ण होने तक मुझे पीड़ा देती है।
इसलिए मैं अपने सभी मित्रों, परिजनों औऔऔर स्नेहीजनों से इतनी ही आशा रखता हूँ कि मुझ झील को पहले बहती नदी और फिर सागर बनने दीजिए। फिर जितने चाहे. उतने द्वंद्व उड़ेलिएगा। मैं झील स्वयं को नदी और उसके बाद सागर बनाने की दिशा में अग्रसर हो चुका हूँ। उस मार्ग पर पग रख चुका हूँ। नहीं जानता, एक कदम भी चला हूँ या नहीं, परंतु मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ सागर बनने और प्रयत्न भी कदाचित जारी हैं। आप से प्रार्थना इतनी ही है कि मेरी प्रतीक्षा और मेरे प्रयत्नों के सफलतापूर्वक पूर्ण होने की आप भी प्रार्प्रार्थना करें।

-कान्हा कहे

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